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क्योंकि यह हमारे टारगेट ग्रूप में फिट नहीं होते

social issue
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लाइफ भी बड़े अजीब रंग दिखाती है. बात जब भी गरीबी की होती है तो लोग लंबे और उबाऊ भाषण देने के लिए मिनटों में तैयार हो जाते हैं आखिर गरीबी हॉट टॉपिक जो है. खैर इस सब्जेक्ट में डीपली न जाकर मैं अपने साथ घटे कुछ वाकयात आप लोगों से शेयर कर रही हूं. इसलिए नहीं कि मुझे गरीब भारत जैसे नेताओं के तकियाकलामों को कॉपी करना है, बल्कि इसलिए क्योंकि कंज्यूमरिज्म में कहीं न कहीं हमारी संवेदनाएं या तो खत्म हो गई हैं या फिर हम खुद संवेदनहीन लोगों की भीड़ में जा खड़े हुए हैं. पहला वाकया धर्मनगरी हरिद्वार का है. उस समय पत्रकारिता मेरे लिए नयानया शौक हुआ करता था और प्रोफेशलिज्म से दूर मैं हर बस्ती, भिखारियों में खबरें देखा करती थी. हांलांकि यह भिखारी तब भी हमारे टारगेट ग्रूप में शामिल नहीं थे. अपने ग्रूप के कुछ लोगों के साथ मुझे बहादराबाद में एक कार्यक्रम में जाने का मौका मिला. इस कार्यक्रम में तत्कालीन सीएम डॉ. एनडी तिवारी भाग ले रहे थे. सड़कछाप तो हम थे ही ऑटो में निकल पड़े कार्यक्रमस्थल की ओर. रास्ते में जहां ऑटो मिला तो देखा कि सीएम साहब की अगवानी के लिए रास्ते को साफ किया जा रहा है, सड़क को पानी से साफकर उस पर चूना बिखेरा जा रहा है, तमाम सुरक्षाकर्मी वर्दी में खड़े आर्डर दे रहे हैं. ठीक इसी सड़क के किनारे एक आदमी फटी लुंगी लपेटे मरा पड़ा था…आसमानी कलर की काली चिकट लुंगी, गहरे काले रंग के उस आदमी का मुंह खुला हुआ था…मुंह और नाक के आसपास तमाम मक्खियां भिनभिना रहीं थीं, लेकिन सब उस लाश को अन्देखा कर आगे बढ़ गए. मुझे लगा कि मुझे वहां उतरकर कुछ करना चाहिए, लेकिन कहीं न कहीं मेरे मन में छिपे संकोच और मेरे अन्य साथियों ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया. बस उस बेनाम से आदमी की आत्मा की शांति की कामना किए मैं आगे बढ़ गई. अगले दिन के हर अखबार में मैंने इस घटना को ढूंढना चाहा, लेकिन अफसोस….कि क्योंकि यह गरीब आदमी किसी के टीजी में नहीं आता, इसलिए घटना वहीं खत्म हो गई. दूसरा वाक्या भी धर्मनगरी का ही है. सफेद धोतीकुर्ता पहने एक आदमी गंगा किनारे कुछ दान कर रहा था. एक गरीब मां, उसकी छोटी सी बच्ची और बेटे के हिस्से में एक सफेद धोती आई. मांबेटी ने बेटे से धोती में एक हिस्सा मांगा, लेकिन एक धोती ने तीनों के बीच के स्नेह को एक पल में खत्म कर दिया. धोती के लिए झगड़ा होने लगा भाई ने एक धोती के लिए अपनी बहन के सिर पर एक पत्थर मार दिया…और भाग गया. गंगा किनारे रोती बच्ची और मां और पुल पर भागता वह भाई…… उस बेचारी बच्ची का वह रोना आज भी मुझे अब भी बहुत याद आता है. तीसरा वाकया अपने देहरादून का ही है. अपना व्हीकल न होने के मुझे कई फायदे लगते हैं और ऑटो जिसे देहरादून में विक्रम कहा जाता है उसकी सवारी मुझे बुरी नहीं लगती…हां यहां पर तीन की सीट में चार को बैठाने का रिवाज है ऐसे में एडजस्ट तो करना पड़ता है. कुछ दिन पहले की बात है. ऐसे ही एक विक्रम में मैं बैठकर अपने ऑफिस आ रही थी. विक्रम में संभ्रांत सी दिखने वाली कुछ महिलाएं भी थीं. घंटाघर से विक्रम के निकलने के बाद रेलवे स्टेशन से कुछ गरीब और मलिन बस्तियों में रहने वाली छोटीछोटी लड़कियां भी बिक्रम में बैठीं. इन बच्चियों ने कूड़े से भरे अपने थैले और लकड़ियों के गट्‌ठर भी विक्रम में रख लिए. इसके लिए वह पहले ही बिक्रम वाले से कई अभद्र बातें सुन चुकी थीं. सीट न मिलने पर भी वह नीचे ही बैठ गईं, लेकिन असली नाटक यहीं से शुरु हुआ. संभ्रांत सी दिखने वाली महिलाओं ने उनसे डिस्टेंस मेंटेन करना शुरु कर दिया, कन्यापूजन का सामान भी नीचे से उठाकर गोद में रख लिया. मानों यह अछूत हों अगर वह इन्हें छू जाएंगी तो मैली हो जाएंगी. इस पर भी जब बात नहीं बनी तो यह महिलाएं इन बच्चों को खरीखोटी सुनाते हुए वहीं पर बिक्रम से नीचे उतर गईं. वाह रे समाज….नवरात्र में यही महिलाएं कन्याओं को द्वारेद्वारे ढूंढने और भक्ति के तमाम ढोंग रच ढालती हैं. खैर दुनिया के यह कायदे कानून अपनी समझ से परे हैं. यह तीनों घटनाएं अब भी मेरी आंखों से गुजरती हैं तो बहुत अफसोस सा होता है. हरिद्वार में उस गुमनाम मरे आदमी के लिए कुछ न कर पाने का…..गंगाघाट पर बिलखती उस बच्ची को न हंसा पाने का. कौन जाने वह बच्ची अब किस हाल में होगी. शायद यही जीवन का सत्य है अगर में उस दिन उस मरे हुए आदमी या बच्ची के लिए कुछ कर पाती तो इससे मुझे कुछ हद तक तसल्ली जरूर हो जाती और मुझे अपनी नजरों में नहीं गिरना पड़ता.

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