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‘अन्नदाता’ की मौत का जिम्मेदार कौन ?

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होरी…प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ का पात्र…एक ऐसा नायक जो गरीब कर्जदार किसान का बेटा होता है…और आखिरकार खुद भी कर्ज के बोझ तले दबे हुए ही ये संसार छोड़कर विदा हो जाता है…अब ना तो प्रेमचंद हैं…और ना ही वो समय…जिसमें इस पात्र को गढ़ा गया था…लेकिन होरी अब भी है…गरीब…बेबस और कर्ज तले दम तोड़ता हुआ…किसान कल भी कर्जदार थे…आज भी हैं…और शायद हमेशा रहेंगे…ये ही इस देश की हकीकत है। जिस देश को हम गर्व से कृषि प्रधान देश कहते हैं…वहां किसान तिल-तिलकर शर्मनाक मौत मरने को मजबूर हैं…वो किसान जिसकी पूरी जिंदगी…खेतों में खटते-खटते बीत जाती है…कभी मौसम की मार…तो कभी सिस्टम की लताड़…शायद यही उसकी किस्मत है….इस बार भी कुदरत की मार किसान पर ऐसी पड़ी…कि उसकी बची-खुची उम्मीदें भी दम तोड़ गईं…किसी इंसान के लिए इससे ज्यादा बुरा भला क्या हो सकता है…कि उसे अपने हंसते-खेलते परिवार को मंझधार में छोड़ मौत का दामन थामना पड़ रहा है…और मौत भी ऐसी दर्दनाक…जिसे देखकर किसी के भी रौंगटे खड़े हो जाएं…कहीं किसान ट्रेन के आगे कूदकर कटने को मजबूर है…तो कहीं फसल की बर्बादी देख सदमे में दम तोड़ रहे हैं…सरकार ने किसानों के जख्मों पर मरहम रखने की कोशिश भी की…लेकिन ये मरहम कम…नमक ज्यादा निकला…मुआवजे के नाम पर 75 रुपए का चेक थमा दिया गया…आज के समय में 75रुपए की क्या औकात है…ये हम सभी जानते हैं…इस 75 रुपए में तो एक कफन भी नहीं खरीदा जा सकता…तो भला नुकसान की भरपाई कैसे होगी…बिटिया की शादी कैसे होगी….बेटा स्कूल कैसे जाएगा…पेट काट-काटकर कुछ करें भी तो क्या ? जिंदगी से कोई उम्मीद न रही…तो अब किसान मौत का सहारा ले रहे हैं…ये सोचकर कि शायद…उनकी मौत के बाद…सरकार जागे….सिस्टम की नींद टूटे…और मुआवजे के नाम पर उसके परिवार को मुट्ठीभर अनाज मिल जाए…कर्ज माफ हो जाए…सच में कैसी मजबूरी है ये…जो एक किसान को देश की राजधानी में खुदकुशी करने को मजबूर कर देती है…लेकिन खुद को आम लोगों का रहनुमा बताने वालों की संवेदना नहीं जागती…सभी आम लोग किसान को तड़प-तड़पकर मरते देख रहे होते हैं…लेकिन उसे बचाने के लिए कोई हाथ आगे नहीं बढ़ता…उसकी मौत पर किसी की आंख में आंसू नहीं होते….आम लोग जब खास होते हैं…तो संवेदनाएं शायद इसी तरह दम तोड़ देती हैं…आंखों पर सिस्टम का चश्मा चिपक जाता है…और कान किसी की चीख नहीं…केवल अपने जयघोष का शोर सुनना चाहते हैं…आम जब खास होते हैं…तो शायद ऐसा ही होता है…इसी कृषि प्रधान देश का यही सच है….और मौत ही अन्नदाता का भाग्य…इससे शर्मनाक कुछ और हो ही नहीं सकता।

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